रांची: चाईबासा में इलाज के दौरान एक छोटे बच्चे की मृत्यु के बाद जिस तरह मजबूर पिता थैले में डालकर बच्चे का शव लेकर गया उस तस्वीर ने राज्य में चिंता और आक्रोश पैदा कर दिया. यह दृश्य जिसने भी देखा, उसकी आंखें नम हो गईं और दिल भारी हो गया. मामला गर्म होने के बाद स्वास्थ्य मंत्री इरफान अंसारी ने मुख्यमंत्री को सफाई दी. उन्होंने एक्स पर पोस्ट किया कि मृतक बच्चा 4 साल का नहीं, बल्कि 4 महीने का था. मंत्री ने कहा कि विपक्ष और कुछ मीडिया समूह इस मामले को भ्रामक तरीके से प्रस्तुत करके डॉक्टरों और मेडिकल व्यवस्था को बदनाम करने का प्रयास कर रहे हैं. वे लोग राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था की छवि धूमिल करने का प्रयास कर रहे हैं.
इरफान अंसारी को राजनीति से संन्यास लेना चाहिए: बाबूलाल
उधर नेता प्रतिपक्ष बाबूलाल मरांडी ने घटना को भयावह, अमानवीय और शर्मनाक बताया. उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य मंत्री को राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए क्योंकि किसी पिता को अपने बच्चे का शव थैली में ले जाने के लिए मजबूर होना पड़ा. मरांडी ने सरकार की नाकामी और स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति पर सवाल उठाए और इसे पूरे झारखंड के लिए चेतावनी बताया.
क्या है पूरा मामला
बालजोड़ी गांव निवासी डिंबा चतोम्बा अपने चार वर्षीय बेटे को इलाज के लिए करीब 70 किलोमीटर दूर चाईबासा सदर अस्पताल लेकर गए थे. इलाज के दौरान शुक्रवार की शाम मासूम की मृत्यु हो गई. पिता ने शव को घर ले जाने के लिए अस्पताल से एंबुलेंस मांगी, लेकिन कोई मदद नहीं मिली. डिंबा चतोम्बा आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हैं. बच्चे के शव को ले जाने के लिए उनके पास निजी वाहन कराने के पैसे नहीं थे. मजबूरी में डिंबा ने बीस रुपये में प्लास्टिक थैली खरीदी, शव उसमें रखा और बचे पैसों से बस का किराया चुकाया. चाईबासा से नोवामुंडी तक बस में सफर करने के बाद वह पैदल चलते हुए देर रात अपने गांव पहुंचे. यात्रियों ने बताया कि पूरा सफर डिंबा खामोश रहे, आंखों में आंसू थे, लेकिन बोलने की ताकत नहीं थी. गोद में रखे मासूम का शव और सामने सूनी सड़क का दृश्य लोगों के दिलों को झकझोर गया.
स्वास्थ्य व्यवस्था पर सवाल
यह घटना झारखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करती है. सरकारी अस्पतालों में एंबुलेंस और शव वाहन मौजूद तो हैं, लेकिन गरीब और आदिवासी परिवारों के लिए यह केवल कागजों में ही सीमित रह जाते हैं. राज्य में यह नारा सुनने को मिलता है कि “हेमंत है तो हिम्मत है”, लेकिन इस घटना ने साबित कर दिया कि गरीबों के लिए सम्मानजनक अंतिम यात्रा भी अब एक सपना बनती जा रही है. यह मामला यह दिखाता है कि गरीब परिवारों के सामने स्वास्थ्य तंत्र की खामियों के कारण कितनी मुश्किलें आती हैं. बच्चे के पिता की पीड़ा, मासूम की असमय मृत्यु और अस्पताल से मदद न मिलना पूरे सिस्टम पर सवाल खड़ा करता है. समाज और प्रशासन दोनों को इस पर गहन सोचने की जरूरत है, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाएँ दोबारा न हों और गरीब परिवारों को उनका हक़ मिला सके.



