Ranchi : झारखंड में प्रशिक्षित स्नातक शिक्षक (टीजीटी) नियुक्ति से जुड़े विवाद पर एक बार फिर कानूनी लड़ाई शुरू हो गई है. विज्ञापन संख्या 21/2016 के तहत राज्य सरकार ने आरक्षित वर्ग के 3,704 पदों को सरेंडर करने का जो निर्णय लिया था, उसके खिलाफ अभ्यर्थियों ने झारखंड हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर कर दी है. यह याचिका लीला मुर्मू एवं अन्य उम्मीदवारों की ओर से अधिवक्ता चंचल जैन के माध्यम से दाखिल की गई है.
याचिकाकर्ताओं ने राज्य सरकार के फैसले को असंवैधानिक, मनमाना और नियमों के विरुद्ध करार दिया है. उनका कहना है कि सरकारी आदेश न तो किसी वैधानिक प्रक्रिया से गुजरा, न ही इस फैसले के पीछे कोई मजबूत कारण बताया गया. दूसरी ओर अभ्यर्थियों की बड़ी संख्या उस दिन का इंतजार कर रही है, जब उन्हें आखिरकार विज्ञापित पदों के अनुरूप नियुक्ति मिले.
योग्य अभ्यर्थी उपलब्ध, फिर भी पद समाप्त
याचिका के अनुसार विज्ञापन 21/2016 में आरक्षित वर्ग के लिए पर्याप्त पात्र उम्मीदवार मौजूद थे और परिणाम भी घोषित हो चुका था. ऐसे में उपलब्धता के बावजूद हजारों पद खत्म कर देना भर्ती प्रक्रिया के मूल सिद्धांतों के खिलाफ बताया गया है. याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के सोनी कुमारी मामले का हवाला देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया था कि नियुक्ति हमेशा विज्ञापित पदों की सीमा के भीतर होनी चाहिए और यदि पात्र अभ्यर्थी मौजूद हैं तो पदों को समाप्त नहीं किया जा सकता.
Legitimate Expectation का उल्लंघन!
उनका तर्क है कि झारखंड सरकार का कदम वैध अपेक्षा (Legitimate Expectation) के सिद्धांत का खुला उल्लंघन है, क्योंकि चयन प्रक्रिया में शामिल उम्मीदवारों को पद पाने की वास्तविक उम्मीद थी. अभ्यर्थियों ने यह भी कहा कि वर्षों की तैयारी, दस्तावेज प्रक्रिया, मेरिट सूची और इंतजार के बाद “सरेंडर” शब्द सुनाना न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि आरक्षण व्यवस्था की भावना के भी प्रतिकूल है.
हाईकोर्ट से पद बहाली और नियुक्ति की मांग
याचिका में मांग की गई है कि सरेंडर किए गए सभी 3,704 पदों को तत्काल बहाल किया जाए और जिन अभ्यर्थियों ने चयन प्रक्रिया पूरी की है, उन्हें नियुक्ति पत्र जारी करने का निर्देश दिया जाए. इसी कदम ने हजारों उम्मीदवारों में उम्मीद जगाई है, क्योंकि यह मामला केवल एक बैच का नहीं, बल्कि भविष्य की सभी शिक्षक नियुक्तियों की नीति को प्रभावित कर सकता है. अभ्यर्थियों का कहना है कि यदि इस फैसले पर रोक नहीं लगी, तो आने वाले समय में आरक्षित सीटों को समाप्त करने की मिसाल बन जाएगी. अब निगाहें झारखंड हाईकोर्ट पर हैं, जहां यह फैसला तय करेगा कि सरकार की प्रशासनिक सुविधा ज्यादा भारी पड़ेगी या अभ्यर्थियों का वैधानिक अधिकार.



