कभी-कभी किसी व्यक्ति की असली पहचान उसके नाम, पद या प्रोफाइल से नहीं, बल्कि अचानक आए एक संकट में सामने आती है. झारखंड लौटती एक उड़ान में जब एक यात्री के कान से तेज़ ब्लीडिंग शुरू हुई, तब प्लेन के भीतर न कोई अफ़सर था, न कोई वीआईपी-बस एक डॉक्टर थी, जो चुपचाप उठी और बोली, “मैं डॉक्टर हूँ.”
वह डॉक्टर थीं झारखंड कैडर के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी अबू बकर सिद्दीख की पत्नी डॉ जेसीना—जो न पहचान चाहती हैं, न प्रचार, लेकिन ज़रूरत पड़ते ही ज़िम्मेदारी अपने आप उठा लेती हैं.
झारखंड में रहकर सेवा, बिना शोर के
डॉ जेसीना पेशे से डॉक्टर हैं और लंबे समय से झारखंड में रहकर चिकित्सा सेवा दे रही हैं. न कोई सोशल मीडिया पोस्ट, न कोई मंच, न कोई दिखावा. अस्पताल, मरीज़ और इलाज—यही उनका संसार है.
जो लोग इस परिवार को नज़दीक से जानते हैं, वे कहते हैं कि उनकी सबसे बड़ी ताक़त उनकी सादगी है. वे डॉक्टर हैं, लेकिन उससे पहले इंसान हैं. शायद यही वजह है कि उनका काम बोलता है, नाम नहीं.
आसमान में अचानक आई परीक्षा
बेंगलुरु से झारखंड आ रही फ्लाइट में सब कुछ सामान्य था. तभी एक यात्री के कान से अचानक तेज़ खून बहने लगा. हालात बिगड़ते देख यात्री घबरा गए, केबिन क्रू सीमित संसाधनों के साथ मदद ढूँढने लगे.
उसी वक्त, बिना किसी औपचारिकता के डॉ जेसीना आगे आईं. उन्होंने न यह बताया कि वे किसकी पत्नी हैं, न यह कि उनका ओहदा क्या है. उन्होंने सिर्फ़ एक डॉक्टर की तरह हालात संभाले, प्राथमिक उपचार किया और यात्री को राहत दिलाई.
जहाँ पहचान पीछे छूट जाती है
उस पूरे घटनाक्रम में सबसे अहम बात यही रही कि वहाँ कोई “आईएएस अधिकारी की पत्नी” नहीं थी—सिर्फ़ एक डॉक्टर थी, जो अपना फ़र्ज़ निभा रही थी.
वहीं, अबू बकर सिद्दीख भी किसी वरिष्ठ अफ़सर की तरह नहीं, बल्कि एक शांत, सहयोगी और ज़िम्मेदार नागरिक की तरह साथ खड़े रहे. न आदेश, न दख़ल—बस भरोसा और संवेदनशीलता.
ईमानदार अफ़सर, क्योंकि साथ सही इंसान है
झारखंड सरकार में अबू बकर सिद्दीख को एक ईमानदार, सख़्त लेकिन भरोसेमंद अधिकारी के रूप में जाना जाता है. उनके फैसले नियमों पर आधारित होते हैं, लेकिन इंसानियत से कटे नहीं होते.
प्रशासनिक जानकार मानते हैं कि किसी भी अफ़सर की सोच उसके घर के माहौल से भी बनती है. और इस मामले में उनकी पत्नी का शांत, सेवा-प्रधान व्यक्तित्व उनकी सबसे बड़ी ताक़त है.
भाषा भी सीखी, भरोसा भी
केरल से आने के बावजूद इस दंपति ने झारखंड को सिर्फ़ पोस्टिंग नहीं, अपना घर माना. हिंदी भाषा पर उनकी मज़बूत पकड़ और स्थानीय लोगों से सीधा संवाद इसी सोच का हिस्सा है.
उनका साफ़ मानना है—“सेवा तभी सार्थक है, जब सामने वाले की भाषा और पीड़ा समझी जाए.”
ऐसी कहानियाँ कम ही होती हैं
यह खबर किसी पुरस्कार, पद या प्रचार की नहीं है. यह उस सोच की कहानी है, जहाँ डॉक्टर होने का मतलब सिर्फ़ अस्पताल तक सीमित नहीं रहता और अफ़सर होना संवेदनशीलता को खत्म नहीं करता.
आज के दौर में, जब पहचान सबसे बड़ा शोर बन चुकी है, यह दंपति बिना शोर के याद रह जाता है—अपने काम, अपने व्यवहार और अपनी इंसानियत से.



